Tuesday, June 24, 2008

खुदसे दूर मैं उसकी साथ को तरसता हूँ

मेहेज़ मुझसे मिलने वो रोज़ अति है
और मेरी मोहब्बत को कुछ लम्हों से तौलती है
मैं तो भूखा हूँ प्यार का पर
जाने क्यों वो रोज़ दिलसे मुझे परखती है।
शायद दिल मे ओसके कोई राज़ सी है
पर जाने क्यों वो रोज़ मुझसे कई सवाल पूछती है।
मिलने को तो मैं ओस रोज़ तरसता हूँ
आती भी है वो पर रोज़ मैं ओसके साथ को तरसता हूँ।
तोहफे भी बहुत वो लाती है
पर एक बस मुस्कान अपनी वो कहीं भूल आती है
शायद फ़र्ज़ समझती है अपनी तभी
मेहेज़ मिलने मुझसे वो रोज़ आती है।
बंद इन दरवाजो सो जो मन मेरा न भरे तो यादें ओसके ओढ़ लेता हूँ।
तभी शायद खुदसे दूर मैं ओसकी साथ को तरसता हूँ....





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