Friday, October 31, 2008

20th oct 2008....
I came back to Delhi with my brother Nitu...

Sweet Story

Years ago, A 10-Year-Old boy in the counter of a soda Approached and climbed on to a stool. "What does an ice cream sundae cost ? he asked the Waitress.

"Fifty cents," she answered.

The youngster reached deep in his pockets and pulled out an assortment of change, counting it carefully as the waitress grew impatient. She had "bigger" customers to wait on.

"Well, how much would just plain ice cream be?" the boy asked.

The waitress responded with noticeable irritation in her voice, "Thirty-five cents." Again, the boy slowly counted his money. "May I have some plain ice cream in a dish then, please?" He gave the waitress the correct amount, and she brought him the ice cream.

Later, the waitress returned to clear the boyish dish and when she picked it up, she felt a lump in her throat. There on the counter the boy had left two nickels (Nickel: 5 Cents) and five pennies (Penny: 1 Cent). She realized that he had had enough money for the sundae, but sacrificed it so that he could leave her a tip.

The Moral: Before Passing a Judgment, First Treat Others with Courtesy, Dignity, and Respect.

Thursday, October 30, 2008

the safest commodity to ever invest is Gold

बुजुर्गो को कहते सुना था के अगर कोई चीज़ मैं पैसा लगनाहोई तो वो सोना है और उनकी बात आज भी सच साबित होई रही है । जहाँ मार्केट और सेंसेक्स धराशायी है तब सोने की कीमत मैं स्थिरता इस चीज़ की पुर्स्ती करता है...

Wednesday, October 29, 2008

जय जगन्नाथ...

सुबह ४ बजे का समय था जब मेरा अलार्म बज उठा। मैंने माँ को उठाया और उन्हें तैयार होने को कहा। फिर मैं ओस गया। माँ के बाद छोटा भाई और फिर मै नहा के तैयार हुआ और स्टेशन की तरफ़ चल पड़े। सुबह की third D.M ( daily Mail) हमारा इंतज़ार मैं बेचैन हो रहा था। हमने प्रभु का नाम लिया और सफर की सुरुवात की। ट्रेन चल पड़ी और हम लोग एक अनजानी ख़याल मैं दुबे खुस थे। गाड़ी धीरे धीरे एक के बाद एक स्टेशन से होते हुए खुर्दा रोड पर ११ बजे पहंची। पर तब तक दो कोन्नेतिंग ट्रेन जा चुकी थी। तो हमें अध घंटा इंतज़ार के बाद संबलपुर-पुरी एक्सप्रेस ट्रेन मिली और हम उसमे जल्द ही बैठ गए। धीरे धीरे हम पुरी स्टेशन पर पहंच गए, तब समय लगभग एक बज रहा था। भले अक्टूबर का महीन अता पर समुद्री तट का होने के हेतु सूरज भी अपने जोरो पर था। हमने जुटे और छप्पर सही जगह रख दिया और मन्दिर की तरफ़ पैर बढ़ा लिया। ये पुरुषोत्तम क्षेत्र का मेरा और मेरी माँ का प्रथम दर्शन था और तभी एक अलग उन्माद और उत्साह मे मन बिचलित सा था। जगत के नाथ जगन्नथ की दर्शन हेतु मन जैसे कुछ ब्याकुल था हमने भक्तिपुत मन से अरुण स्तम्भ को पर किया और मुख्या मन्दिर की और अग्रसर हुए। बिच मैं बिमला मन्दिर और मदन मोहन से भी मिलने का इरादा जताया तो उनके भी दर्शन किए... अब हमसे रहा नहीं जा रहा था ... पैर जैसे अपने आप भगवानकी दर्शन हेतु आगे बढ़ रहे थे और हम भी उस उन्माद मैं चले जा रहे थे। धीरे धीरे बाईस पहच चढ़ने के बाद हम शिन्हाद्वर के पास पहंचे और मन्दिर मैं प्रबेस किया । तब भक्ति मैं बिलीन भक्तों का एक जत्था हमारे संपर्क मैं आया और हम भी बिना रुके उस भीड़ का हिस्सा होने मैं अपने आप को रोक न सके। भीड़ धीरे धीरे भगवन के दर्शान हेतु आगे बढ़ता चला गया और हम भी मस्त हो कर जय जय कार के साथ चलते गए। समय था दोपहर की आरती का। अतः हमें आरती लेने का सौभाग्य भी मिला। समय के लिए लगा की भगवन स्वयं वहां धरती पे विराज्मा थे। क्या अलौकिक दृश्य था ... स्वेट वस्त्र पहने प्रभु बलभद्र ,पीले वस्त्र मैं माँ सुभद्रा और काले वस्त्र मैं अपने सारे अभुशानो के साथ स्वयं प्रभु जगन्नाथ अपने कमनीय नयनो से जैसे हमसे भक्तिपुत श्रद्धा का आवाहन से हमें आशीष प्रदान कर रहे थे... क्या अद्भुत दृश्य था वो। बरसो के बाद जैसे भक्त और भगवन भीड़ मैं एक दुसरे से गुफ्तगू मैं बिभोर थे। क्या मन्दिर था ,क्या क्या भगवन और क्या उनके भावः .... एक नैसर्गीक अनुभव मैं मेरे दोनों हाथ ऊपर उठ गया और मैं हाथ जोड़ कर प्रभु के इस अवतार के दर्शन कर रहा था और अपने आको धन्य महसूस कर रहा था। ... मन तो नहीं था पर बाकि भक्तो के दर्शन के लिए हम मुख्या मन्दिर से बहार अये और अन्य मंदिरों के दर्शन किए। फिर हमने महाप्रसाद सेवन करने के लिए आनंद बाज़ार गए और बड़े प्रतीक्षा के बाद ४ बजे अबाधा भोजन किया और वापस स्टेशन की तरफ़ चल पड़े। वापसी मैं माँ ने कुछ खरीददारी की और हम फिर वापस ट्रेन मैं बैठ के घर की तरफ़ चल पड़े। वापसी मैं मैं यही सोच रहा था के क्या अनुभव था वो ...मन जैसे भक्ति मैं गद गद हो उठा था... जय जगन्नाथ...

मैं जिंदा हूँ अभी

मैंने कहा की मैं जिंदा हूँ अभी

और है सांसें मुझमें भी कुछ बाकि,

न जाने कितने दिनों से खुसी को तलाश रहा हूँ

और कर रहा हूँ इंतज़ार मैं दिन कम अपने.

जालिम मोहब्बत के नाम पे केहर क्यों बरसाती है

जिंदा इस जिस्म मैं मेरे रूह को क्यों जलाती है

न है चैन और न सुकून इस दिल-ऐ-नादाँ को मेरे

फिर भी जिंदा इसकी ज़हन मे एहसास एक मोहब्बत क्यों है ।

कर बुलंद इरादे अपने अब भी उम्मीद के सहारे खड़ा हूँ

खुदा के रास्ते और अपने जिद पे कुछ ऐसे अदा हूँ

बेगैरत को उसकी, किस्मत और बनाके मंजिलो को अशिआन

दिल मैं शराफत इतनी की बेवफाई को उसकी दिल्ली मोहब्बत बताया है...

Tuesday, October 07, 2008

कैसा मंज़र ये मोहब्बत दिखाता है !!!


बड़े दिनों बाद कलम ने लिखने का और आंखों पढने का मन बनाया है। दिल के यादों के पन्नो को कागज़ बना के दिल के कलम से रूह ने मेरी अपने जज्बातों का पिटारा खोला है। जाने कैसी कुछ पल की वो साथ था उसका क्या दिल क्या जान ख़ुद खुदा भी उस खुशनुमां मेरी अंदाज़ से कुछ हैरान सा था। पर कुछ भी हो मेरा साथ उससे और हमारा खुदा को शायद किसी अमावस की रात मैं चादनी की तराह महसूस हुआ। मैं कुछ पल उसके साथ को जो तरसता था होके उसका ज़माने को भूल उसमे खोया था। कमबख्त जाने कैसे उस नामाकुल सैतान को इसकी भनक लगी और कैसा केहर उसने बरसाया। करके दूर मुझसे उसको जैसे मुझसे ज़माने का क़र्ज़ दुखों का मुझसे वसूला है। खो के उसका साथ मैं अब न जाने कब आने वाली मौत को अपने मे समाने को उत्सुक हूँ। वक्त इस ठहराब से कुछ परेशान सा लगता है और मुझसे मोहब्बत का कुछ पथ सीखने को बेताब भी है। पर ना मौत न वक्त और न हम कहीं रुकते हैं ...साथ जमाने के गम हम कहीं एक दूर लंबा सफर मे निकलते हैं .सुना है फिर भी दूरीयां मिटती नहीं उलटी ये दूरियाँ मोहब्बत मैं अपना मकाम बना लेती हैं और हस्ते जीते हुए इंसान की दिलकी गहराई को और गहरा कर गम के उसमे बसाती है । जाने कैसे ये होता है ये मोहब्बत पर ना होए तो खामी और हो जाई तो इज्ज़त बन जाती है । मोहब्बात पर हर मंज़र पे शिकस्त नहीं होता और न ही हर दिल ओ जान को मंजिल देती है । किस्मत केह्के कुछ लोग इसे सर माथे पे बिठाते हैं और ज़हर इसका ज़िन्दगी भैर पीते हैं। मिले खुदा एक दिन तो पूछता मैं उससे ये कैसा नसीब बनाया है और ये कैसी मोहब्बत। करता तो मैं भी हूँ उस खुदा से मोहब्बत जबसे संभाला है होश पर जाने क्यों अब उसका मंजार भी पहले से कुछ कम लगता है...मोगाब्बत ये कैसा मंज़र दिखाता है ...मोहब्बत ये कैसा मंज़र दिखाता है ...