अंततः कल मैंने रक्ष्या बंधन मन लिया। वैसे तो १६ तारीख को था पर हमारी बेहें साहिबा को टाइम कहाँ था हमारे लिए। उनको याद आतातब तक ४ दिन गुज़र चुके थे। पर कमबख्त को याद था और क्यों की वो अपने घर पे थी चार दिन कुछ नहीं खाया है ढक्कन ने । कल बड़े मुद्दतो बाद मे उसे मिला उअर खुद सेंटी हो गया। वो भी कुछ ऐसी ही थी । गाड़ी मे बैठते ही उसने राखी बंधी और उसकी आँखों मैं आंसू । पुरे रस्ते वो रही मैं पूछता रहा ... मेरे सवाल नहीं ख़तम हुए पर रास्ता ख़तम हो गया। उसने गाड़ी भी ले लिया है ... जिम्मेदारिया समझने लगी है और बड़ी हो गयी है । अछा लगा उससे मिल कर। जाते जाते मैंने कहा के कभी जरुरत पड़े तो याद कर लिया कर तो सवालिया नजरूं से देखने लगी...खैर खुस रहे वो और इसे ज्यादा कुछ नहीं चैहिये मुझे...
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