Friday, August 29, 2008

मैं और मेरी चित्रकला ...

कल रात नींद को पलकों पे बिठा ते बिठाते बहुत रात गुज़र गया। जैसे एक ज़ंग मेरे अन्दर चल रहा था। टीवी की उत्तेजना भरी आवाज़ से परे मेरा मन किसी और चीज़ को तलाश रहा था। न जाने वो चीज़ उसे मिला के नहीं। बहुत देर तक बिस्तर पे पड़े पड़े नींद को तरस रहा था पर फिर भी नहीं आयी । अचानक अपनी diary का ख्याल आया तो मैं उठ बैठा। दो पल धुन्दने के बाद मुझे मेरी दिअरी मिल गया और साथ में पड़ा एक पेंसिल भी मिला। जाने क्या आया दीमाग मैं अपने मन्दिर के दीवार पे मैं एक दिया का चित्र आंकने मैं व्यस्त हो गया। मैंने अपने अन्दर कभी चित्रकला की इतना आग्रह नहीं देखा था। जिसने कभी सीधी लकीर न खींची हो उसके दीमाग मैं चित्रकला की रूचि कुछ अजब लगा। मात्र मैं इन सब भावनाओं से दूर उस दियी को आंकने मैं लगा गया। मेरे diary मैं अंकित दिए को देख देख के मैंने दिए को एक पूर्ण रूप देने मैं सफल हुआ। उसे कुछ देर पहले मेरे आराध्य गणपति की एक छवि भी मेरे पेंसिल से दीवार पे प्रकट हुए । मेरे सरे बंधुगन मुझसे दूर हो चुके हैं और कल अकेला बैठा था तो उनके यादों के साये भी मुझे बिचलित कर रहे थे। जाने कैसा अजीब सा एक बातावरण बना हुआ था कल मेरे गरीबखाने मैं । ये सब सोच जब दीमाग मैं खलबली मचा रहे थे तभी धीरे से मेरे ज्ञान से परे एक गहरी कलि रात ने मुझे नींद के हवाले करते हुए अपना फ़र्ज़ निभाया और मेरे चढ़ती उतरती ज़िन्दगी को एक अल्प्बिराम देते हुए मुझे कुछ राहत दी...

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