हो इतनी दुआ कबूल की मैं जी लूँ ज़िन्दगी यही इसी जनम मैं
हो जहाँ मेरी आबाद, माँ की ममता से और पिता के स्नेह से
बन के मेरी परछाई रहेई पत्नी साथ मेरे और हो दो भाई मेरे हाथ
तो क्या बात है ...
ना लाया था मैं और ना ले जाऊंगा कुछ इस मिटटी से मैं मगर
कर जाऊं ऐसा कुछ मैं सभी के लिए यहाँ
तो मौत भी क्या चीज़ है
देखे मेरी माँ कोई सपना और करूँ मैं पूरी
दूं पिता को सुकून और भाइयों को खुशियाँ
तो ज़िन्दगी क्या बात है
लाऊं हर चाँद जमीन पे मैं जिसके लिए
और करूँ हर तमन्ना पूरी उनकी
इतराए वो बनके मेरी अर्धांगिनी
फिरआये क़यामत भी तो क्या बात है।
चार दिन की ज़िन्दगी मैं करूँ कम हर वो गम
फिर निकले ज़िन्दगी तो क्या बात है।
है कुछ इस से भी आगे ज़िन्दगी और है कुछ खाहिश छुपी दिल में मेरे मगर
कर पाऊँ इतना ही बस जो लिखा अभी तो फिर ज़िन्दगी क्या बात है।
यूँ तो फ़क़ीर हूँ मैं मगर हो इज़ाज़त और कृपा मारुती नंदन की
तो करूँ कुछ ऐसा और न करूँ बयान भी तो क्या बात है।
भर सकूँ कुछ खाली पेट और ला सकूँ कुछ चेहरें पे मुस्कान भी
तो ज़िन्दगी क्या बात है
हर कोई लिखता है बोलता है पर मैं सच मैं ऐसा कर सकूँ
तो ही ज़िन्दगी ज़िन्दगी है वरना ये ज़िन्दगी ही ख़ाक है।
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