आसाढ़ मास शुक्ल पक्ष्य द्वितीया के दिन भगवान् जगन्नाथ भाई बलभद्र और बेहेन सुभद्रा के साथ श्रीमंदिर से निकल कर भक्तो को दर्शन देने के लिए अपने नौ दिन के रथयात्रा में अपनी मौसी के घर मौसि के मंदिर चले गए हैं. आज ५ दिन हो गए हैं माँ अन्नपूर्णा महालक्ष्मी को प्रभु से बिछड़े हुए और वे प्रभु के वियोग के बिरह सह नहीं कर पा रही है और जब बिरह असह्य हुआ तो वे बेहेन बिमला ( जो की मंदिर प्रांगन में ही बिराजमान है ) से अपनी इस दसा का समाधान पूछती हैं तो माँ बिमला ने उन्हें मौसिमा मंदिर जा के भगवन जगन्नाथ जी से मिल के आने की सलाह दी. यह खबर होते ही जगन्नाथ महाप्रभु भी अपनी मुख श्रृंगार सम्पन्न कर माता महालक्ष्मी जी से मिलने की प्रतीक्षा करने लगते हैं . बिमला माँ के इस सलाह से माँ महालक्ष्मी सोलह श्रृंगार करते हुए रात के अँधेरे में गुन्दिचा मंदिर जा के भगवन से मिलने की योजना बनाती हैं और अपने कुछ बिस्वस्त सेविकाओ के साथ रथयात्रा के पाचवे दिन गुन्दिचा मंदिर पहंचते हैं और सबसे नज़र बचा के वो मंदिर मे जगन्नाथ जी से अकेले मिलके अपनी बिरह प्रकट करते हैं और बदले में प्रभु उनको आस्वसना देते हैं की वो रथयात्रा ख़तम करके श्रीमंदिर में लौट आएंगे. महालक्ष्मी जी गुस्से में श्रीमंदिर लौटते लौटते अपने अभिमान को तोड़ते हुए नंदीघोष रथ से एक लकड़ी तोड़ देते हैं जिसने प्रभु को उनसे दूर ले आया हैं.
इसी प्रथा को आगे बढाते हुए कल माँ महालक्ष्मी जी की हेरा पंचमी कराइ गई. महालक्ष्मीजी का सोलह श्रृंगार भी कराया गया और वेद् बर्णित बिधिनुसार सारे कार्यक्रम हुआ और एक सुसज्जित पलिंकी में वो नंदीघोष रथ के निचे पहुंची और वहां कुछ बिधियों के बाद एकांत में प्रभु जगन्नाथ से मिली और जाते जाते रथ में से एक लकड़ी भी तोड़ दी और श्रीमंदिर लौट गई..
देबलोक में जिनकी एक दर्शन हेतु देवताओं को कड़ी तपस्या करनी पड़ती है वहां भक्त के भक्ति से बिबस महाप्रभु के ये इंसानी रूप में लीलाएं रचना किसी स्वप्नलोक की कहानी से कम नहीं है..
धन्य प्रभु धन्य आपकी लीला...
जय जगन्नाथ !